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सोमवार, 9 नवंबर 2015

नफ़रतों की सियाही...

वक़्त  की  ठोकरों  ने  सताया  बहुत
पर  हमें  यह  सफ़र  रास  आया  बहुत

दुश्मनों  ने  हमेशा  यक़ीं   कर  लिया
दोस्तों  ने  मगर  आज़माया  बहुत

थी  हमारी  कमी  यह  कि  तन्हा  जिए
इश्क़  तो  आपने  भी  निभाया  बहुत

नफ़रतों  की  सियाही  न  कम  हो  सकी
रौशनी  के  लिए  घर  जलाया  बहुत

सालहा  साल  हम  याद  आते  रहे
गो  हमें  आशिक़ों  ने  भुलाया  बहुत

कर  सका  ख़ुल्द  पर  वो  न  राज़ी  हमें
ज़ोर  हम  पर  ख़ुदा  ने  लगाया  बहुत

जी  किया  तूर  पर  जल्व: गर  हो  गए
हां  हमें  तीरगी  ने  डराया  बहुत  !

                                                                                   (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: यक़ीं: विश्वास; तन्हा: अकेले; नफ़रतों: घृणाओं; सियाही:कालिमा, अंधकार; सालहा  साल: वर्ष प्रति वर्ष; ख़ुल्द:स्वर्ग; राज़ी:सहमत; ज़ोर:बल;  तूर: एक मिथकीय पर्वत; जल्व: गर:प्रकट; तीरगी:अंधकार।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

घर में फ़जीहत ...

लब   लरज़ते   ही   क़यामत  हो  गई
जान  की  दुश्मन  सियासत  हो  गई

चंद  जाहिल    शायरी  में     आ  गए
बज़्म  से   ग़ायब   नफ़ासत  हो  गई

बदनिज़ामी    देखिए    इस  दौर  की
शाह  की   घर  में   फ़जीहत  हो  गई

इत्तिफ़ाक़न  मिल  गए  पर  शाह  को
रोज़  की    परवाज़    आदत  हो   गई

शाह  को    मंहगाई  पर    उस्ताद  से
बे-हयाई     की      नसीहत    हो  गई

आईने    के     रू-ब-रू   जब  भी  हुए
ताजदारों     को    हरारत    हो     गई  

ख़्वाब  में  आ  तो  रहे  थे   वो   मगर
राह  में   नासाज़   तबियत   हो   गई

आज  भी  दिल  रात  भर  धड़का  किया
आज  फिर  नाकाम  हिकमत   हो  गई

शाह   को  अब   शुक्रिया   कह  डालिए
सांस   लेने    की    इजाज़त    हो  गई  !

                                                                              (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: लब : ओष्ठ-अधर; लरज़ते: कांपते; क़यामत: प्रलय;  सियासत: राजनीति; चंद: चार,कुछ; जाहिल: अशिक्षित, जड़-बुद्धि; बज़्म: गोष्ठी,सभा; नफ़ासत: शालीनता, भद्रता; बदनिज़ामी: कुप्रबंध, कु-व्यवस्था;  दौर: काल-खंड; फ़जीहत: दुर्दशा; इत्तिफ़ाक़न : संयोगवश; पर: पंख; परवाज़: उड़ान; बे-हयाई: निर्लज्जता;   नसीहत: शिक्षा, दिशा-निर्देश; आईने :दर्पण;  रू-ब-रू : मुखामुख, समक्ष; ताजदारों: मुकुट-धारियों, सत्ताधारियों;  हरारत :ज्वर;  नासाज़ :अ-स्वस्थ;  नाकाम: असफल, व्यर्थ; हिकमत: वैद्यक;  इजाज़त:अनुमति।










शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

शाह की जूतियां...

है  इरादा  हमें  मिटाने  का
तो  हुनर  सीख  लें  सताने  का

वो  कहीं  जान  को  न  आ  जाएं
कौन  दे  मश्विरा  निभाने  का

आपके  पास  सौ  बहाने  हैं
ढब  नहीं  काम  कर  दिखाने  का

कांपते  हैं  पतंग  उड़ाने  में
ख़्वाब  है  आस्मां  झुकाने  का

आज  इक़बाले-जुर्म  कर  ही  लें
फ़ायदा  क्या  मियां ! छुपाने  का

क़र्ज़  क्यूं  लीजिए  ज़माने  से
माद्दा  जब  नहीं  चुकाने  का

कोई  अफ़सोस  नहीं  शाहों  को
मुल्क  की  आबरू  लुटाने  का

हो  गया  शौक़  होशियारों  को
शाह  की  जूतियां  उठाने  का

बेघरों  के  मकां  बनाएंगे
है  जिन्हें  मर्ज़  घर  जलाने का!

                                                                     (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इरादा:संकल्प; हुनर : कौशल; मश्विरा : सुझाव, परामर्श; ढब:ढंग; ख़्वाब: स्वप्न, आकांक्षा; आस्मां: आकाश; 
इक़बाले-जुर्म : अपराध की स्वीकारोक्ति; माद्दा: सामर्थ्य; अफ़सोस:खेद; आबरू:प्रतिष्ठा; मकां: आवास; मर्ज़: रोग ।

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

तीसरी सालगिरह : ज़ुल्म का दायरा

कौन-सा   ग़म  पिएं  बता  दीजे
और  कब  तक   हमें  दग़ा  दीजे

आपके     पास   तो    किताबें  हैं
आप    मुजरिम  हमें   बना दीजे

दुश्मने-अम्न    की   हुकूमत   है
ख़्वाबो-उम्मीद   को   सुला  दीजे


ताज-ओ-तख़्त,सल्तनत रखिए
मुल्क  का   क़र्ज़  तो  चुका  दीजे

दाल-चावल, पियाज़  सब  मंहगे
क़ौम  को  और  क्या  सज़ा  दीजे

जिस्म  में  जान  है  अभी   बाक़ी
ज़ुल्म     का    दायरा   बढ़ा   दीजे

लोग      बेताब   हैं    बग़ावत   को
तोप  का   मुंह   इधर   घुमा   दीजे

सर    झुकाना    हमें    नहीं   आता
आप     चाहे    हमें    मिटा     दीजे !
                                                                   (2015)

                                                            -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: दग़ा:छल, कपट; किताबें: पुस्तकें, यहां आशय धर्म-विधि की पुस्तकें; मुजरिम: अपराधी; दुश्मने-अम्न : शांति का शत्रु; हुकूमत: सरकार, शासन; ख़्वाबो-उम्मीद: स्वप्न और आशा; ताज-ओ-तख़्त: मुकुट और सिंहासन; सल्तनत: राज-पाट; मुल्क:देश; क़ौम : राष्ट्र; सज़ा: दंड; जिस्म: देह; ज़ुल्म: अत्याचार; दायरा: व्याप्ति, घेरा; बेताब: उत्कंठित; बग़ावत : विद्रोह ।

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

...गुनाह करते हैं !

सर  उठा  कर  गुनाह  करते  हैं
शाह  दुनिया  तबाह  करते  हैं

आप  जज़्बात  रोक  लेते  हैं
बाद  में  आह-आह  करते  हैं

इश्क़  में  नूर  चाहने  वाले
चांदनी  को  गवाह   करते  हैं

इश्क़  हो,  जंग  हो,  बग़ावत  हो
जुर्म  हम  बेपनाह  करते  हैं

दुश्मनों  ने  नहीं  किया  जो  कुछ
काम  वो  ख़ैरख़्वाह  करते  हैं

है  अक़ीदत  जिन्हें  मुहब्बत  में
सब  लुटा  कर  निबाह  करते  हैं

क़र्ज़  में  दब  चुके  जवां  दहक़ां
क़ब्र  को  ख़्वाबगाह  करते  हैं

 वो  दुआ  मांग  लें  जहां  रुक  कर
हम  वहीं  ख़ानकाह  करते  हैं  !

                                                                                       (2015)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनाह : अपराध; तबाह: उद्ध्वस्त; जज़्बात : भावनाएं; नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता ; गवाह:साक्षी; जंग: युद्ध; बग़ावत:विद्रोह; जुर्म:अपराध; बेपनाह:असीम, अत्यधिक; ख़ैरख़्वाह:शुभचिंतक; अक़ीदत : आस्था; क़र्ज़ : ऋण ; जवां  दहक़ां : युवा कृषक; क़ब्र: समाधि; ख़्वाबगाह : अंतिम शयन-स्थल, स्वप्नागार; दुआ : शुभेच्छा; मान्यता; ख़ानकाह : पीरों का स्मरण करने, मन्नत करने का स्थान, मज़ार।


सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

मुश्किलों का करम...

उम्र  भर  फ़लसफ़ा  रहा  अपना
दर्द  ज़ाहिर  नहीं  किया  अपना

आज  दिल  की  बयाज़  खोली  थी
कोई  सफ़्हा  नहीं  मिला  अपना

तंज़   का     भी     जवाब  दे  देते
दोस्त  हैं, दिल  नहीं  हुआ  अपना

हद  बता  दी    शराब  की    हमने
शैख़    जानें    भला-बुरा    अपना

बुतकदे    आपको    मुबारक   हों
हम  भले   और    मैकदा  अपना

मुश्किलों  का  करम  रहा  हम  पर
दर    हमेशा    रहा  खुला   अपना

लोग     सैलाब    मानते  हैं   जब
रोकता    कौन    रास्ता    अपना

मंज़िलें   ख़ुद   क़रीब   आ  बैठीं
देखता   रह  गया   ख़ुदा  अपना !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़लसफ़ा:दर्शन, सोच; ज़ाहिर:प्रकट, व्यक्त; बयाज़:दैनंदिनी, डायरी; सफ़्हा:पृष्ठ; तंज़:व्यंग्य; हद: सीमा; शैख़ :धर्मोपदेशक; बुतकदे: देवालय; मैकदा: मदिरालय; करम:कृपा; दर:द्वार; सैलाब:बाढ़; मंज़िलें : लक्ष्य ।

                                                                       

शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

सख़्त ख़ाल हो, तो...

कोई  बेहतर  ख़्याल  हो  तो  लाओ
ज़िंदगी  का   सवाल  हो  तो  लाओ

शाह  है  मुल्क  बेचने  की  धुन  में
कोई क़ाबिल  दलाल हो  तो  लाओ

मुर्ग़ियां  खा के थक चुके हैं  हम भी
माश  या  मूंग   दाल  हो  तो  लाओ

शायरों   को   'ख़ुदा'   रक़्म   बांटेगा
आप भी  सख़्त ख़ाल  हो  तो  लाओ

दाल  दिल्ली  में  हो  गई  है  सस्ती
हाथ  में  नक़्द  माल  हो  तो  लाओ

है  ज़रूरत  तमाम  चीज़ों  की  अब
नौकरी  फिर  बहाल  हो  तो  लाओ

'सर झुका कर  नियाज़  ही  ले आते'
आपको  यह  मलाल  हो  तो  लाओ !

                                                                    (2015)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: क़ाबिल: योग्य, दलाल: मध्यस्थ; माश: उड़द; नियाज़: पूर्वजों/मृतकों के सम्मान में किया जाने वाला भोज, भंडारा; 
मलाल:खेद, दुःख ।