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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

...किसे जलाओगे ?

सर  मिरे   सामने   झुकाओगे
क्या  ख़ुदा  से  बुरा  बनाओगे

आस्मां  से    दुआएं    बरसेंगी
गर  हमें  बज़्म  में  बिठाओगे

क़ब्र  पर  गर्द  जम  चुकी  होगी
जब  तलक  तुम  क़रीब  आओगे !

हो  चले   हम  ग़ुरुब  दुआ  देकर
अब  सह् र  तक  किसे  जलाओगे

फिर  किया शाह  पर  यक़ीं  तुमने
फिर  किसी  दिन  फ़रेब  खाओगे

नाम      हिन्दोस्तान      है    मेरा
किस  क़लम  से  मुझे  मिटाओगे

लावा  बहता  है  मिरे  ज़ख़्मों  से
तुम  समंदर  हो  सूख  जाओगे  !

                                                                                    (2015)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बज़्म: सभा, गोष्ठी; गर्द: धूल; ग़ुरुब: अस्त; सह् र: प्रातः; यक़ी: विश्वास; फ़रेब: छल, धोखा; क़लम: तूलिका, लेखनी, शब्दावली; ज़ख़्मों: घावों।


शनिवार, 15 अगस्त 2015

उधर जाएंगे, या ...

जो  जज़्बात   ज़ेरे-बह् र  आएंगे
नज़र  में  समंदर  नज़र  आएंगे

ज़रा और नज़दीक़ आ जाएं दिल
नक़ूशे-मुहब्बत  उभर  आएंगे

शबो-शब   हमें  याद   करते  रहें
ख़ुदा की क़सम, दिन संवर आएंगे

रखेंगे  कहां  तक  हमें  मुंतज़िर
कभी  तो  मियां  राह  पर  आएंगे

इधर  घर  हमारा,  उधर  मैकदा
उधर  जाएंगे  या  इधर  आएंगे ?

बिठाया जिन्होंने तुझे  तख़्त  पर
वही  क़ब्र  तक  छोड़  कर  आएंगे

मुअज़्ज़िन ! न दीजो अज़ां ज़ोर से
मियांजी  ज़मीं   पर  उतर  आएंगे

हमें  ख़ुल्द  भी  है   गवारा  अगर
ख़ुदा  भी  हमारे    शह् र  आएंगे  !

                                                                             (2015)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जज़्बात: मनोभाव; ज़ेरे-बह् र: छंद में, नियंत्रण में; नक़ूशे-मुहब्बत: प्रेम के चिह्न; शबो-शब: प्रति रात्रि; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; 
मियां: श्रीमान, प्रिय; मैकदा: मदिरालय; तख़्त: राजासन; क़ब्र: समाधि, श्मशान; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मियांजी: आदरणीय व्यक्ति, यहां आशय ईश्वर; ख़ुल्द: स्वर्ग; गवारा; स्वीकार।



मंगलवार, 11 अगस्त 2015

...दुनिया बुरी नहीं

अश्'आर  में  रखते   हैं  ख़ूं -ए-दिल   निकाल के
हो      तब्सिरा     हुज़ूर     ज़रा     देख-भाल   के

अफ़सोस !     शहंशाह    बेईमां    निकल    गया
रक्खी  थीं   हमने   कितनी  तमन्नाएं  पाल  के

बेहतर    निज़ाम    सिर्फ़    ख़याली     पुलाव  है
दुनिया    चला   रहे   हैं   वो  जुमले    उछाल के

ऐवानेवाला-ज़ेर     हैं    किस   काम   के    अगर
हासिल   न   हों    जवाब   वहां   हर   सवाल  के

लिखिए  न  दिल   पे   नाम  हमारा  लिहाज़   में
जब  तक  न  मुतमईं  हों  कि  हम  हैं  कमाल के

आए   जो दिल की बात  ज़ुबां पर  तो  किस तरह
सदियों   से   मुंतज़िर  हैं   किसी   हमख़्याल   के

जीना   भी   फ़र्ज़   हो  तो  ये  दुनिया   बुरी  नहीं
देखे   हैं   ख़ुल्द   ने   भी   कई  दिन   मलाल  के !

                                                                                                    (2015)

                                                                                             -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्'आर: शे'र का बहुव.;   तब्सिरा: टीका-टिप्पणी, समीक्षा; बेईमां: भ्रष्टाचारी;  तमन्नाएं: अभिलाषाएं; बेहतर    निज़ाम: सुशासन; ख़याली पुलाव: काल्पनिक भोज/विचार;  जुमले: कोरे वाक्य; ऐवानेवाला-ज़ेर: उच्च और निम्न सदन, राज्य सभा-लोक सभा; हासिल: प्राप्त; लिहाज़: शिष्टाचार, समादर; मुतमईं: आश्वस्त;  मुंतज़िर: प्रतीक्षारत;    हमख़्याल: समान विचार वाला; फ़र्ज़: कर्त्तव्य;  ख़ुल्द: स्वर्ग; मलाल: खेद। 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

दहशतों के पुलिंदे ...

नई   बस्तियों   में    शह् र   ढूंढते  हैं
यहीं  था  कहीं  अपना  घर  ढूंढते  हैं

कहीं तो मिले रिज़्क़ दो-चार दिन का
परिंदे    ख़ला   में    शजर    ढूंढते  हैं

फ़सल मर चुकी,  क़र्ज़ ज़िंदा खड़ा  है
परेशान     दहक़ां    ज़हर    ढूंढते  हैं

हैं  अख़बार  या  दहशतों  के  पुलिंदे
फ़क़त  एक  अच्छी  ख़बर  ढूंढते  हैं

चुराने  लगीं  नूर  अब  स्याह  रातें 
सितारे    ज़रा-सी   सह् र  ढूंढते  हैं

ज़ईफ़ी   गवारा    नहीं   दोस्तों  को
कि  ग़ुस्ताख़ियों  की उम् र  ढूंढते  हैं

बहुत  दूर  है  मग़फ़िरत  का  इदारा
मुसाफ़िर   शरीक़े-सफ़र    ढूंढते  हैं

यहां  तीरगी  में  ख़ुदा  क्यूं  मिलेगा
जहां  रौशनी   हो    उधर  ढूंढते   हैं  !

                                                                         (2015)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन; परिंदे: पक्षी; ख़ला: निर्जन स्थान; शजर: वृक्ष; दहक़ां: कृषक; दहशतों: भयों; पुलिंदे: गट्ठर; फ़क़त: मात्र; 
नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता; स्याह: कृष्ण;   सह् र: उष:काल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; गवारा: स्वीकार; ग़ुस्ताख़ियों: ढीठताओं; मग़फ़िरत: मोक्ष;  इदारा: संस्थान; शरीक़े-सफ़र: सहयात्री; तीरगी:अंधकार।




गुरुवार, 6 अगस्त 2015

सरकार से ख़ुश !

निगाहे-यार    से   ख़ुश  हैं
नज़र  के  वार  से  ख़ुश  हैं

शहर   के  लोग     दीवाने
नए  बाज़ार  से    ख़ुश  हैं

मकीं  बेज़ार  हैं   ख़ुद  से
दरो-दीवार  से    ख़ुश  हैं

वो  अपनी  फ़त्ह  से  ज़्यादा
हमारी  हार  से  ख़ुश  हैं

फ़क़ीरी  के  दिनों  में  हम
ख़्याले-यार  से  ख़ुश  हैं

मियां  की   सादगी   देखो
कि  बस  दस्तार  से  ख़ुश  हैं

ज़माने-भर   के    बे- ईमां
तेरी  सरकार  से  ख़ुश  हैं !

                                                                 (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मकीं: मकान में रहने वाले; बेज़ार: व्यथित; दरो-दीवार: द्वार एवं भित्ति; फ़त्ह: विजय; फ़क़ीरी: सन्यास, भिक्षुक-वृत्ति; 
ख़्याले-यार: प्रिय/ईश्वर का ध्यान; सादगी: निस्पृहता; दस्तार: पगड़ी/बड़ा पद; बे- ईमां: भ्रष्टाचारी। 

सोमवार, 3 अगस्त 2015

दिल मुलाज़िम नहीं...

हम पे  अक्सर  क़ुसूर  आता  है
तिश् नगी   में   सुरूर  आता  है 

आजकल हर बहार का  मौसम
इस  मोहल्ले  से  दूर  आता  है

और कुछ आए या नहीं उनको
दिल  जलाना  ज़ुरूर  आता  है

है अभी  उम्र  पर  निकलने की
देखिए,  कब   शऊर   आता  है

शाह  है तो बिठाएं क्या सर पर
क्या  हमें  कम  ग़ुरूर  आता है

दिल मुलाज़िम नहीं  रईसों का
सब्र    रखिए  हुज़ूर    आता  है

दौड़     आते   हैं    आस्मां  वाले
जब  अक़ीदत  पे  नूर  आता  है !

                                                                           (2015)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक्सर: अधिकांशतः; क़ुसूर: दोष, आरोप; तिश् नगी: तृष्णा; सुरूर: उन्माद; पर: पंख; शऊर: ढंग, समझ; ग़ुरूर: घमंड; मुलाज़िम: सेवक; रईसो: समृद्धों; सब्र: धैर्य; हुज़ूर: श्रीमान; आस्मां वाले: आकाशीय लोग, देवता गण; अक़ीदत: श्रद्धा, आस्था; नूर: तेज, प्रकाश, संबोधि।

रविवार, 2 अगस्त 2015

ग़ज़ल की ज़रूरत

सर  है  तो   इंक़िलाब  है,  दिल  है    तो  दास्तां
खोने  को  कुछ  नहीं  है  तो  पाने  को  दो-जहां

क़ातिल    हैं   इक़्तिदार   में   सूली  पे   बेगुनह
मज़लूम  का    नसीब     संवरता    नहीं    यहां

क्या  ख़ूब   शाह  ने   अवाम  को    दिया  सिला
खाने  को    रोटियां  हैं    न  रहने  को  आशियां

आ'ला   वज़ीर    से      न     ज़ायचा    मिलाइए
अल्लाह    मेह्रबां    तो   गधा   भी    है   पहलवां

उस   दौर   में    ग़ज़ल  की   ज़रूरत   कहां  रही
इंसाफ़   की   तलाश   मुकम्मल   न     हो  जहां

लो    ले   चलीं    हवाएं    उड़ा   कर    हमें  कहीं
गुल  बन  के    मुस्कुराएंगे   शायद   यहां  वहां

राहों   में    वादियों   में      ख़ला   में    बहार  में
हर  सिम्त   तू  ही  तू  है   कि   ढूंढें   तुझे  कहां !

                                                                                        (2015) 

                                                                               - सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इंक़िलाब: क्रांति; दास्तां: आख्यान, कथा; दो-जहां: इहलोक-परलोक, दोनों संसार; इक़्तिदार: सत्ता; बेगुनह: निरपराध; 
मज़लूम: अत्याचार-पीड़ित; नसीब: प्रारब्ध; अवाम: जन-साधारण; आशियां: घर; आ'ला: मुख्य, उत्तम; वज़ीर: मंत्री; ज़ायचा: जन्म-कुंडली; मेह्रबां: कृपालु; पहलवां: मल्ल;  दौर: काल खंड; इंसाफ़: न्याय; मुकम्मल: संपूर्ण; गुल: पुष्प; वादियों: घाटियों; ख़ला: एकांत, निर्जन; 
सिम्त: ओर।