Translate

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

मेरी मस्जिद , मेरा का'बा , मेरा घर


अज़ां   कहते  हैं   जिसको   एक   आशिक़   की   सदा   है
सनम    जिसका   ख़ुदा  है   बस  ख़ुदा   है   बस  ख़ुदा  है

सर-ओ-पा     तर-ब-तर   हूँ    बारिश-ए-मै-नूर-ए-यारां   में
मेरी   मस्जिद ,  मेरा  का'बा ,   मेरा   घर      मैकदा   है

नहीं   है, .और  है   भी ,  है  कभी  ज़ाहिर   कभी  ओझल
कभी    पहलू    में    बैठा   है ,    कभी   मीलों   जुदा   है

असर   होता   नहीं   उस  दुश्मन-ए-जां  पे   गदाई   का
मेरी   क़िस्मत   में   शायद    हाथ  मलना  ही  बदा   है

मुहब्बत कर ,  इबादत कर,  शिकायत कर मगर दिल से
मियां,    मक़सूद   के   घर   का    ज़रा-सा   क़ायदा   है।
       
                                                        (24 दिसं ., 2012)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 



रविवार, 23 दिसंबर 2012

जंग-ए-ईमां


बात  पर   बन   आई   है    देखें   निभाता   कौन   है
कूच:-ए-क़ातिल  में   आख़िर   मुस्कुराता  कौन   है

क्या  समां  है,   चश्मो-लब   दोनों तरफ़  ख़ामोश हैं
देखिये,   अब   बात   को    आगे   बढ़ाता   कौन   है

अपने-अपने  दायरों में    हैं  मुक़य्यद  ज़ेह्न-ओ-दिल
हुस्न-ए-जां   के  सामने    ईमाँ   से  जाता  कौन  है

कोई  शजरे से न  आया   कट गई फिर शब्बरात
रौज़ा-ए-ग़ालिब  पे  अब  शम'.अ  जलाता  कौन है

ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र   आ रू-ब-रू  हो के भी देख
जंग-ए-ईमाँ  है  यहाँ    पलकें   झुकाता   कौन  है।

                                                             ( 2012 )

                                                - सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ:  कूच:-ए-क़ातिल: हत्यारे की गली; समां: वातावरण; चश्मो-लब: नयन और अधर; दायरों: सीमाओं, घेरों; मुक़य्यद: बंदी; ज़ेह्न-ओ-दिल: मस्तिष्क और मन; हुस्न-ए-जां: प्राणप्रिय का सौंदर्य; ईमाँ: निष्ठा, आस्था; शजरे: वंश; शब्-ए-क़द्र: पूर्वजों के सम्मान की रात्रि, 'शब-ब-रात'; रौज़ा-ए-ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की समाधि; हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र: चिर-प्रतीक्षित यथार्थ, ईश्वर; रू-ब-रू: प्रत्यक्ष; जंग-ए-ईमाँ: आस्थाओं का संघर्ष । 

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

न तोड़ेंगे वो: हिजाब कभी ....


कोई    फ़रेब    नया     बेवफ़ा    करे   है  उन्हें
हमारे  दिल से   दम-ब-दम   जुदा  करे है उन्हें

तमाम    ज़ायरीं    उनकी    दरूद     पढ़ते   हैं
हमारा   इश्क़    हबीब-ए-ख़ुदा   करे  है   उन्हें

कहीं लिखा है  के: न तोड़ेंगे वो:  हिजाब  कभी
यही   ग़ुरूर   मेरा    मरतबा    करे   है   उन्हें

हुनर  है  ख़ूब   सर-ए-बज़्म   निगहसाज़ी  भी
ये:  रंग-ए-सोज़  सबसे   अलहदा करे है  उन्हें

जो तहे-दिल से  निभाते हैं  रस्मे-उन्सो-ख़ुलूस
रूह-ए-ममनून   शुक्रिया   कहा  करे  है  उन्हें।

                                                        (2009)

                                        -सुरेश स्वप्निल 

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

....अब्र ने नहीं देखा


रुख़  - ए - बहार   मेरे  शह्र  ने    नहीं  देखा
सिला - ए - इंतज़ार    सब्र   ने    नहीं  देखा

तू  बदगुमाँ  है   ग़रीबां  पे   ज़ुल्म  ढाता है
मेरा   जलाल    तेरे  जब्र  ने     नहीं   देखा

फ़रेब-ओ-मक्र  की   इफ़रात  है  जहाँ  देखो
ये:  दौर   और  किसी  उम्र  ने    नहीं  देखा

तू संगदिल तो नहीं है   मगर कभी तुझको
मेरे  मकां  पे   शब् - ए -क़द्र  ने  नहीं देखा

हर एक सिम्त  आसमां से नियामत बरसी
सहरा-ए-दिल की तरफ़  अब्र ने नहीं देखा।

                                                  (2010)

                                       -सुरेश स्वप्निल 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

जो पीरों में न होंगे ....


हमारे  अश्क   जिस  दिन   आपकी   आँखों  में  आएंगे
जहाँ  में   हों  न  हों   हम   आपके   ख़्वाबों   में  आएंगे

अभी   है   इब्तिदा-ए-इश्क़   दिल  के  दाग़   क्या  देखें
न   जाने    और   कितने     हादसे    राहों   में    आएंगे

अभी  हम  कनख़ियों  से  देखते  हैं   उनको  हसरत  से
कभी  वो:  दिन  भी  आएगा  के: हम  नज़रों  में आएंगे

तेरे   रुख़सार   की  लौ  में   झुलस  कर  तोड़ते  हैं   दम
ये:   परवाने    जहाँ    देखो     वहीं   क़दमों   में   आएंगे 

ये: दिल के ज़ख्म  हैं साहब  छिपाएं  भी तो किस  तरह
जो   अश्कों   में   न  उतरें   तो  मेरे   नग़मों  में  आएंगे

तेरे   आशिक़   तो   तारीख़   में   अपनी  जगह  तय  है
जो   पीरों   में    न   होंगे    तो   तेरे   बन्दों  में   आएंगे।

                                                                      (2003)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 







बुधवार, 19 दिसंबर 2012

ये: सुरबहार-ए-अज़ां ....

ख़ुदा  क़सम  मैं  हुस्न-ए-जां  से   बेनियाज़  नहीं
मगर  वो:  शख़्स  मेरी  तरह   दिल-नवाज़   नहीं

वो:   मयफ़रोश   निगाहों   से    जाम   भरता    है
शह्र   की   आब-ओ-हवा  में  ये:  बात   राज़  नहीं

सबा-ए-सहर  में   शामिल  है   भैरवी  की  ख़ुनक़
ये:  सुरबहार-ए-अज़ाँ  यार-ए-मन  है  साज़  नहीं

हक़ीक़तन   वो:   मेरे  दिल  को   छू  के गुज़रा  है
मगर    ख़्याल   है    वो:   सूरत-ए-मजाज़    नहीं


तेरे   शहर    को    ख़ैरबाद   कह  चले   ऐ   दोस्त
यहाँ    दुआ - सलाम    रस्म    है   रिवाज़   नहीं।

                                                             (2009)

                                              -सुरेश  स्वप्निल
                                   

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

असर तेरी छुवन का ...



अजब मुश्किल  में  ये: दिल  आ गया  है
मेरी   नज़रों   में    क़ातिल  आ गया  है

हुए   वो:    नाख़ुदा    तूफ़ाँ     में      मेरे
न  जाने  कब  ये:   साहिल  आ  गया है

असर  तेरी  छुवन   का   हम  भी   देखें
तेरे   क़दमों  में  बिस्मिल  आ  गया  है

मेरे    माशूक़   का   पैग़ाम    ले    कर
मेरे   कमरे   में    बादल  आ  गया   है

ख़ुदारा  अब  तो  लग  जाओ   गले  से
सफ़र  करते  हैं  मक़तल  आ  गया  है


बड़ी    शिद्दत    से    तेरी    याद   आई
बड़ी मुश्किल में  ये:  दिल  आ गया है।

                                             (2006)

                              - सुरेश  स्वप्निल