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सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

ख़्वाबीदा उर्फ़ रखते हैं

मरहले     रास्ता      नहीं  होते
मंज़िलों  का    पता  नहीं  होते

मालो-ज़र  से  जिन्हें  मुहब्बत  है
वो:      हबीबे-ख़ुदा   नहीं  होते

मुस्कुराना    अगर     नहीं  आता
तुम   मेरा    मर्तबा    नहीं  होते

काश !  इस्लाह  आप  सुनते  तो
तंज़  का     मुद्द'आ     नहीं  होते

आप  सज्दा  न  कीजिए  उनको
आदमी       देवता      नहीं  होते

अश्क  ज़ाया  न  कीजिए  अपने
ये:    ग़मों  की  दवा   नहीं  होते

वो:  जो  ख़्वाबीदा  उर्फ़  रखते  हैं
ख़्वाब    उनसे   जुदा  नहीं  होते !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मरहले: पड़ाव; मालो-ज़र: धन-दौलत; हबीबे-ख़ुदा: ख़ुदा के प्रिय, पीर; मर्तबा: लक्ष्य, प्रतिष्ठा;  इस्लाह: सुझाव; तंज़: व्यंग; मुद्द'आ: आस्पद, विषय; सज्दा: सिर झुका कर प्रणाम करना; ज़ाया: व्यर्थ;  ख़्वाबीदा: स्वप्निल; उर्फ़: उपनाम !

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